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Sunday, 5 January 2014

शीत की प्रीत


आज शीत ने फिर मुझ से प्रीत की है 
क्यो उससे फिर अनुराग बढ़ता जा रहा है




यौवन स्नेह सी बांध रही है यह शीत लहर मुझे   
ओर फिर से चहतों का विस्तार बढ़ता जा रहा है    

धुंध धीरे धीरे अपने आगोश मे ले रही  
जेसे बाहो की परिधि हो मेरी माशूका की 


आज सूरज और सर्द में देखो लगी है होड़ सी जाने.... 
ओर धीर धीरे धुंध को डसने लगी रोशनी सूरज की 

 ठंडी हवाए फिर धूप के गर्म सोल मे बदल गयी 
ओर फ़िज़ाओं ने उठा दी धुंध मे ख़्वाबों की इक चादर सी 




Thursday, 20 June 2013

राजस्थान री रीत

बता राजस्थान  "बाँ " थारी रीत कठै।                                              
सीस कटियोड़ा धड़ लड़ रहया एडा पूत कठै। 
गाया खातर गाँव गाँव मे बलिदानी जुंझार कठै।                           
फेरा सू अधबीच मे उठतों "बो" पाबू राठोर कठै ।   
कठै है अब "बा" भामाशाह साहूकार री रीत। 








                                                              सुख दुख मे सब साग रेवता बा मिनखा री प्रीत कठै।  
                                                              मोठ बाजरा रो रोट ओर फोफलिया रो सांग कठै।  
                                                              मारवाड़ सू मेवाड़ तक गुजता "बी" मीरा रा गीत कठै।   
                                                              बता राजस्थान  "बाँ " थारी रीत कठै।
                                                               





गोगा- रामदेव तेजा जेड़ा कलजुग रा पीर कठै।                    
भोम-धरा पर आंच आवता मर मिटनै री रीत कठै।
दुर्गा- पन्ना जेड़ी स्वामिभक्ति री रीत कठै।






                                                          बता राणी पद्मणी जेड़ी प्रीत कठै।
                                                          कठै है बो "प्रथ्वी" गोरी ने हरबा वालो ।
                                                          पतिया साग सुरग मे जावण री रीत कठै।
                                                          बता "बाँ "मूमल महेन्द्रा  ओर ढोला- मारू री प्रीत कठै।
                                                          बता राजस्थान "बाँ " थारी रीत कठै।   
                                                        



   

Sunday, 28 April 2013

मोत


यह रुलाई नहीं तो फिर क्या है !
यह जुदाई नहीं तो फिर क्या है,

हाँ वो मुलाक़ात तो सफाई से करते है,
गर यह सफाई नहीं तो फिर क्या है,

दिलरुबा की तो सिर्फ दिलरुबाई है,
गर दिलरुबाई नहीं तो फिर क्या है,

शिकवा होता है सिर्फ दोस्ती मे,    
यह दोस्ती नहीं तो फिर क्या है,

रब ही जाने इन हसीनाओ का गुरूर,
यह खुदाई नहीं तो फिर क्या है,

गर मोत आई तो टल नहीं सकती है,
ओर आई नहीं तो कोई मार नहीं सकता ! 

Sunday, 3 March 2013

जिन्दगी

बादल की खिड़की से सूरज ने आँखें खोलीं,
 
सिरहाने चढ़ एक चुलबुली 
 
कोयल बोली ...
 
छोड़ दो नींद की अंगड़ाइयाँ,
 
चलो,अब उठो, करनी है आज एक और 
 
जीवन की यात्रा।

रोज़ की तरह  थके पांव,
 
दोड़ती जिन्दगी पार करनी है 

यह सूरज भी मुझे अकेला छोड़कर 
 
हर रोज ही,चुपके-चुपके भाग जाता है?

आजका दिन दौड़ती हुई एक सड़क
 
जो लोटकर कभी  नहीं आएगा,

Friday, 8 February 2013

बहुत देर आये दुरुस्त आए

आखिर आज लटका एक सरकारी अथिति
१२ साल से तो  कानून ही लटका हुआ था!

कानून की देवी का निर्णय देश हित में था 
फिर इसको किसलिए लेट लटकाया गया?
 

देश के नेता जी क्यों हमदर्दी दिखाकर
अब तलक उसको जीवन दान देते रहे ?


एक-दो को फांसी से यह नासमझी जनता 
उसको झुनझुना दे कर बहलाया गया है!

कौन समझाएगा राजनीती को यहाँ
की फिर चुनावी मुद्दा भुनाया गया है! 





Thursday, 7 February 2013

बलिदानी कोंम

सिर कटियोड़ा घणा लड्या
      पण बिना पंगा घमसान मच्या!

             कल्लू कांधे बेठ्या जयमल 
गजब अजूबो समर रच्यो !

        कलम चलाणों जे नहीं सिख्यो 
                 पण सेंला सूं लिखी कहाणी है 

भाटे- भाटे चितोड दुर्ग के 
         हेटे दबी जवानी है !

            जोहर शाका रचा रचा कर 
करी घणी नादानी है !
      आ कोम घणी बलिदानी है !!

          हल्दी घाटी की माटी भी 
                 चन्दन बरनी दीख रही !

ई माटी ने शीश चढाओ
    अण बोली आ सीख सही !

             धर्म कारणे ई माटी में 
लोही की भी नदी बही !

       पुरखा की रीत निभावण  नै 
                  मकवाणों मरतो डरयो नहीं 

छत्र चंवर छहगीर लियां
       यमराज करी अगवाणी है !

           आ कोम घणी बलिदानी है !!

समसाणा की आग समेटी 
            भाला सूं बाटी सेकी है !

                मरूधर धर ने मुक्त कराई
स्वामी भक्ति विशेषी ही !


         दुरगो बाबो घुड़ले सोयो 
                  पीठ ढोलणी राखी नहीं 

डगराँ मगरा भटक सदा ही 
        हिवडे री पीड़ा कण न कही!

                स्याम धर्म ने साध दुरगजी 
राखी पुरखा की सेनाणी है!
         आ कोम घणी बलिदानी है !!

                   लूआं सू तपती ई माटी का 
कण कण में बलिदान भरयो!

         शीश हथेली मेल शूरमा 
                  रण मे ऊँचो नांव  करयो!

सिवां पर डटीया बीरा कै 
          नेड़ो आतो काल डरयो!


          धर्म धरती नै राख़ण सारु 
वीरां नै मिली जवानी है!

        बच्चा बच्चा देश रुखाला
                कीनी घणी कुर्बानी है!
आ कोम घणी बलिदानी है !!

लेखक-: "भंवरसिंह बेन्याकाबास"





















Sunday, 3 February 2013

अपने देश मे बेगाने


लो अपने ही शहर मे बिकने लगा इन्सान,   
जेसे की धुप बिना दिखने लगीं परछाईयाँ। 

मानवता के गहन रेशे जेसे जी रहे हैं बंदिशों में,  
भ्रस्ट्राचार के साम्राज्य में सत्ये है अब गर्दिशों में।

फिर से अराजकता की धुंध और महगाई के तीर-भाले,
देखो नेताजी फिर खाने लगे है रिश्वत के गहरे निवाले।

अब तो कतरा कतरा रिसने लगीं है रुसवाइयाँ यहाँ,
चलो अब तो ख़ारिज करो इन देश के बिचोलियों को।

इन अंधेरी बस्तियों को जगमगाने के लिए,
चलो कुछ और जलाये अपनी मशालों को।

गर बदलनी है यह बदरंग सी सूरत इस जन्हा की, 
तो ज़रा नफ़रत से नवाजो इन सियासी नेताओ को।

अक्सर तेरी चीख़ें यहाँ बहुत ख़ामोश सी रहती हैं,
वो वक्त आ गया तेरी चीखों को खुलकर चीख़ना होगा।





"गजेन्द्र सिंह रायधना" 












Sunday, 30 December 2012

कहाँ तक गिरेगे



यह जिन्दगी भी क्या जिन्दगी 
इज्ज़त तो है पर पानी पानी है,

आज के खुले  दोर मे 
ये शर्म-हया कोरी बेमानी है।

आज ज़िंदा होकर भी मुर्दा हो  ,
और कहते हो यह तो नादानी है?

तुम्हे अपनी सभ्येता से क्या लेना- देना 
तू तो कल की जन्मी सभ्येता की दीवानी है    



किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ यहाँ।
फिर  चाहे  वो कोई बारात हो या वारदात 


यहाँ की  हवाओं में भी दर्द और पीड़ा है,
लगता है की पराई धरती, अंजान देश?




एक खँडहर की भांति है मेरी संस्क्रती  
अब आदमी जंगली और मेरा आंगन जंगल 



Monday, 24 December 2012

सर्द का सितम

-:सर्द का सितम:- 

अब सर्द होने लगा है मौसम का रुख़  
कोहरा फिर से घना होने लगा है यहाँ

धुंध की दीवार के पीछे धूप की चाहत है!  
निगोड़ी ठण्ड की कैसी-कैसी है परियोजनाए

स्नेह के दिन हुए फिर शीत के हवाले,
चारो तरफ सर्द हवाओं की बस्तियां बसी है।

ज़िस्म छलनी है तेरे शीत अह्साहस से
कौनसी ज़िद है कि ये सांस अभी तक ज़िन्दा है,

है चारो तरफ साज़िशें मुझे मिटने की 
क्यों मेरी ज़िन्दगी से इतनी रंज़िशें है?

तेरी सर्द हवाए मुझे एक सन्देश दे जाती है
की ज़िन्दगी में यहाँ दर्द और यातनाएं भी हैं!




Monday, 17 December 2012

आम आदमी का दर्द

                                                       
                                                          आम आदमी का दर्द



     तुझसे हमको क्या  मिला है ,
     जिसका हमें गिला शिकवा है ।

      बात तो  सिर्फ एक रोटी की थी,
हम ने कब चाहा की मीठे पकवान हो।


क्यों टूटे सपनो को सवारने की सज़ा देते हो,
रोशनी में भी अंधेरों के दीपक जला लेते हो,



वोट देकर क़र्ज़ दिया था,अपने को गिरवी रख कर
अब तुम चूका रहे हो हमें महगाई की क़िश्तें देकर।




वक़्त को भी अपना कहु गर ,
इसने मे भी कोई ज़ख्म सिला है तेरा।



अपने सपनों में ही शायद खुश हू ,
तेरे हकीकत के काटो वाले फूलो से।










Wednesday, 12 December 2012

"अधूरी चाहत"

"जख्म"


 क्यों बेवजह जख्म पे मरहम लगाते हो ,
दर्द जख्म का कभी मिटता नहीं मिटाने से।
फिर वही ज़ुदाई के पलो का जिक्र आते ही
पुराने ज़ख्म जिंदा हुए,जेसे पतझड़ मे फूल
एक सहारा है ज़िंदगी मे बस तेरे जख्मो का
जिसे मे समझ रहा हू प्यास का तोहफा सा।
अब ज़िस्म तो दर्द के वीराने के साये में,
बस यूही जिन्दगी ज़िन्दा किसी बहाने से।
चाहे ख़ुशी के फूल हो या गम के बादल,
कोई उम्मीद नहीं रखते मेरे जीवन मे।

 "अधूरी चाहत"

बहुत उड़ने लगी है तू,ज़रा सम्हलकर रहना
कि पर कतरे गए हैं यहाँ पर ऊँची उड़ानों के
तेरे सीने में भी कही जज्बात ज़िन्दा होगे,
 तू होसलो के पंख लगा कर आसमान छू ले
ये माना कि तुझे ख़ुद पर बड़ा ऐतबार है लेकिन
बहुत मुमकिन नहीं ये ख़्वाब तेरे आसमानों के



के







Friday, 9 November 2012

अस्तित्व

गर मे नहीं   तो तुम भी नहीं  
कैसे बचोगे गर मार डालोगे मुझे ?

बेटी रहेगी तो सृष्टि रहेगी !
और बढेंगी रौनकें इस जहां मे 

बिना मेरे अस्तित्व ना रहेगा तेरा 
बिचलित करती है यह तेरी निति 
हम सर्मिदा है तेरे इस नियति पर!

अपने वजूद की बाते करने वाले ?
बहता खून बनकर धमनियों में मेरा,

लबों की ख़ामोशी बहुत कुछ कह गयी
बेटी  हु ना  इसलिए सब कुछ सह गयी !


बहुत गहरा है मेरे होने में तेरा होना।
प्रक्रती का गूढ़ रहस्य है? रहस्य ही रहने दो.














दीपावली की हार्दिक सुभकामनाओ  के साथ!  


Wednesday, 7 November 2012

अधुरा प्यार


प्यार से देखा नहीं  एक बार भी मुझे,
ज़िंदा हूँ उसी आश पर की कभी तो वो दिन...

तेरी ख़ामोशियों में गोते लगा लगा कर
दर्द के मोती के सिवा मिला क्या इस ख़ोज में.

लाख ढूंढा पर ख़ुशी मिलती नहीं तेरे दिल मे
ज़िन्दगी हमने टिकाई है तेरे स्नहे के सेज पर.

यूँ तो जिन्दगी मे थी बारात फूलों की मगर,
 फिर भी दिल हमारा था काँटों की सेज पर.

मन में था विश्वास मुठ्ठी का जेसे रेत से,
मगर तुम लिख ना पाए  नाम हमारा बारम्बार.


  वो दिन आया भी  इतना हंसी की 
तुम सब कुछ छोड़कर ख़ुद  मेरे पास आ गए।


ता उम्र  तरसते रहे हम आपके लिए  
आप आये तो हम इस दुनिया से जाने को थे!