Wednesday, 12 December 2012

"अधूरी चाहत"

"जख्म"


 क्यों बेवजह जख्म पे मरहम लगाते हो ,
दर्द जख्म का कभी मिटता नहीं मिटाने से।
फिर वही ज़ुदाई के पलो का जिक्र आते ही
पुराने ज़ख्म जिंदा हुए,जेसे पतझड़ मे फूल
एक सहारा है ज़िंदगी मे बस तेरे जख्मो का
जिसे मे समझ रहा हू प्यास का तोहफा सा।
अब ज़िस्म तो दर्द के वीराने के साये में,
बस यूही जिन्दगी ज़िन्दा किसी बहाने से।
चाहे ख़ुशी के फूल हो या गम के बादल,
कोई उम्मीद नहीं रखते मेरे जीवन मे।

 "अधूरी चाहत"

बहुत उड़ने लगी है तू,ज़रा सम्हलकर रहना
कि पर कतरे गए हैं यहाँ पर ऊँची उड़ानों के
तेरे सीने में भी कही जज्बात ज़िन्दा होगे,
 तू होसलो के पंख लगा कर आसमान छू ले
ये माना कि तुझे ख़ुद पर बड़ा ऐतबार है लेकिन
बहुत मुमकिन नहीं ये ख़्वाब तेरे आसमानों के



के







1 comments:

shalini rastogi said...

आपकी पोस्ट 'अधूरी चाहत' अच्छी लगी... ऐसे ही प्रयास करते रहिए ... शुभकामनाओं सहित.

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