मायावी भ्रस्टाचार को
जला लिया था मैंने
अपने सिरहाने...
सुनहरे कल का तकिया लगा
सो गए थे ख़्वाब मेरे,
नींद भटकती फिरी
कहीं सता के गलियारों में,
उज्वल कल था, रात थी,
और करवटें...
मन की किताब में
महकती रहीं
पुरानी यादें,
और मन कहीं
परछाइयों के देश में
तलाशता रहा
रोशनी के बिम्ब...
कत्ल की रात थी
तिलिस्मी चाँद था
और किसी नये सुबह को
बाँहों में भर लेने को
आतुर मेरा मन था ,
और एक एक कर
कई ख्वाब
मेहमान बनकर आए...
सुबह की ठंडी हवा सहला गयी,
सपनो का महल सजाया था
आखिर टूटना ही था,
आप सोच रहे हो की कविता का यह क्या शीषक है "सपने मे भ्रस्टाचार" पर मेरे मायने में इससे अछा शीषक नहीं होगा! जो सपने में तो कम से कम भ्रस्टाचार को ख़त्म कर सके !
इस कविता के माध्यम से एक आम आदमी अपने सपनो मे नदी के लहरों की तहर सुनहरे कल के हिचकोले लेते होए भ्रस्टाचार और अराजकता को समूल नाश करता होवा सांति रूपी समुद्र मे समां जाता है !