लो अपने ही शहर मे बिकने लगा इन्सान,
जेसे की धुप बिना दिखने लगीं परछाईयाँ।
मानवता के गहन रेशे जेसे जी रहे हैं बंदिशों में,
भ्रस्ट्राचार के साम्राज्य में सत्ये है अब गर्दिशों में।
भ्रस्ट्राचार के साम्राज्य में सत्ये है अब गर्दिशों में।
फिर से अराजकता की धुंध और महगाई के तीर-भाले,
देखो नेताजी फिर खाने लगे है रिश्वत के गहरे निवाले।
अब तो कतरा कतरा रिसने लगीं है रुसवाइयाँ यहाँ,
चलो अब तो ख़ारिज करो इन देश के बिचोलियों को।
इन अंधेरी बस्तियों को जगमगाने के लिए,
चलो कुछ और जलाये अपनी मशालों को।
गर बदलनी है यह बदरंग सी सूरत इस जन्हा की,
तो ज़रा नफ़रत से नवाजो इन सियासी नेताओ को।
अक्सर तेरी चीख़ें यहाँ बहुत ख़ामोश सी रहती हैं,
वो वक्त आ गया तेरी चीखों को खुलकर चीख़ना होगा।
"गजेन्द्र सिंह रायधना"
3 comments:
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 5/2/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है
दो
बहुत बढ़िया रचना
अक्सर तेरी चीख़ें यहाँ बहुत ख़ामोश सी रहती हैं,
वो वक्त आ गया तेरी चीखों को खुलकर चीख़ना होगा___अब खुलकर बोलना होगा.;बहुत खूब
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