Friday 23 November 2012

      "आम आदमी "
   
आम हु आम ही रहने दो खास ना बनावो मुझे  
कुछ सपने मेने भी बुने थे, उनको हकीकत ना बनावो 
     
  लुटेरो के देश में आम की तरह चूसा जाता हु  
खास बना के फिर वो मुझे आम ही बना देते है 

चलो खास बनने से पहले आओ कुछ सपने चुने ,
उनकी सुन ली हमने अब कुछ मन की सुनें.

आ गई वो घड़ी की हम वगावत को चुनें.
ग़रीबों को आम कहने वालो को आम बनाये  




आम आदमी 



   "संसद "   
             
यहाँ पर हर दिन इक नया चक्रव्यूह रचते है,
जिसे अभिमन्यु बन कर हमेशा भेदने की कोशिश करता है,
    बहुत छल से रचे जाते हैं इतने गहन आवरण,
उन्हें आम आदमी भेदने की नाकाम कोशिश करता है।







    " नेताजी "
कहने को तो यह सख्श बड़ा सफ़ेद -जुबान है
पर उसके दिल में एक कोयले की खान है 
काबिलिय तारीफ हैं इनकी यहाँ बेशर्मियाँ भी
कितना भी ज़लील करो,बड़ी सख्त जान है 



नेताजी 












इन कविताओं के शिषको के  इर्द गिर्द ही सामजिक प्राणी का जीवन घूमता है,  जिन्हें मेने अपनी कविता के
माध्यम से इन तीनो का चरित्र चित्रण करने का प्रयास किया है!
   


3 comments:

Unknown said...

तीनों रचनाए बहुत बढ़िया और प्रभावी हैं | बहुत खूब |

मेरी नई पोस्ट-गुमशुदा

Rajput said...

आज के हालात के मुताबिक व्यंग करती लाजवाब रचनाएँ।

Unknown said...

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आपकी कविताओं में सच्चाई युक्त लय है..
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अच्छे स्तर की कविताओं के माध्यम से किसी भी व्यक्ति को सरलता से बिना तलवार निकाले समझाया जा सकता है..
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आपकी साधना सराहनीय है।
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