Tuesday 27 November 2012

शहर की सड़के

छोड़ आया गाँव की गलियां  शहर की सडको के लिए 
अजब मुसाफ़िर है जो राह बेच कर मंजिल तक आया!
मुकाम  बना लिया है  माँ बाप से अलग उसने
दुःख -दर्द  ख़रीद लिया है और सकून बेच आया है 

 जहाँ पे दुःख दर्द से  कभी रिश्ते नाते ना थे 
 पर यहाँ का  जश्न भी मातम दिखाई देता है !

शीत की ठंडी आह से भी यहाँ बदन झुलसते हैं
और उनका दावा है कि वो शहरे मिजाज जानते हैं।


 ना तो वफ़ा की आंच और ना ही सगदिली छाव यहाँ 
क्या हो गया है तेरे वादों की धूप,और स्नेह के स्पर्श को 


लगता है ज़िन्दगी बंट गयी है जैसे सैकड़ों टुकडो में
अब तो साथ रहकर भी लगे  ज़िन्दगी अज़नबी सी 

 अतीत के आईने से एहसास होता है जिन्दगी का  
यूँ लगे है जैसे कि ज़िन्दगी तो जी ही नहीं रहा हु 

न तो मिलने कि ख़ुशी है न बिछड़ जाने का ग़म
जाने  किस मोड़ पे आकर रुकी है ज़िन्दगी

अब तो यहाँ हर तरफ वीरानियाँ का ही साथ है,
खुशीया तो अब ख़्वाबों और ख़्यालों में ही सजी है 



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