Monday 11 June 2012

शास्त्र और शस्त्र के अनुरागी- आर्य क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल जी

महान क्रन्तिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म दिवस है इस अवसर पर आप सभी को इन महान क्रन्तिकारी के जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ उनकी यह दो  कविता जिनकी वजह से वो मर कर भी अमर है ! उनकी रचना हमे आज़ादी के पथ पर चलने को प्रेरित करती है ! 


पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल'की गजल सरफरोशी की तमन्ना ही वह अमर रचना है जिसे गाते हुए कितने ही देशभक्त फाँसी के तख्ते पर झूल गये। वह सम्पूर्ण रचना यहाँ दी जा रही है :

"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ!हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?

एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है।
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है।

अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,एक मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ।
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है।

खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

हाथ जिनमें हो जुनूँ , कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है , सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

हम तो निकले ही थे घर से बाँधकर सर पे कफ़न,जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ मौत की महफ़िल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

यूँ खड़ा मकतल में कातिल कह रहा है बार-बार, "क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?"
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज।
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है ! सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ।

जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खूने-जुनूँ, क्या वो तूफाँ से लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है । देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ??"

आज भी यह गजल हर युवा  गुनगुनाता रहता है आज़ादी की लड़ाई मे कोई भी सहीद को फांसी दी जाती हो वो यही नारा लगता था !



"मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !   
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल  

मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !

ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !

काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,
यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !

आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प ,
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या !"

यह कविता  गोरखपुर जेल से चोरी छुपे बाहर भिजवायी गयी इस गजल में प्रतीकों के माध्यम से अपने साथियों को यह सन्देशा भेजा था कि अगर कुछ कर सकते हो तो जल्द कर लो वरना सिर्फ पछतावे के कुछ भी हाथ न आयेगा लेकिन इस बात का उन्हें मलाल ही रह गया कि उनकी पार्टी का कोई एक भी नवयुवक उनके पास उनका रिवाल्वर तक न पहुँचा सका।

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