गांव हुए हैं अब खंढहर से,
लगते है भूल-भुलैया से।
किसको अपना दर्द सुनाएँ,
प्यासे मोर पप्या ?
आंखो की नज़रों की सीमा तक,
शहरों का ही मायाजाल है,
न कहीं खेत दिखते,
न कहीं खुला आसमान।
मुझे लगता है कोई राह तकता,
वो पानी का पनघट और झूले।
हरियाली तो अब टीवी मे दिखती,
जंगल पत्थर ओर कंक्रीटों मे बदले
विरह के दफ्तरो मे अब केवल,
कुछ दर्द की हैं फ़ाइलें
शायद मुझ बिन,
सूना है माँ का आँगन।
मरी ज़िंदगी को "जी" रहे हम,
इस आशा मे कभी तो गांव मे रहूगा।
दिल के कोने मे कही बेठा गाँव
रोज़ गांव लौटने को कहता है।
लगते है भूल-भुलैया से।
किसको अपना दर्द सुनाएँ,
प्यासे मोर पप्या ?
आंखो की नज़रों की सीमा तक,
शहरों का ही मायाजाल है,
न कहीं खेत दिखते,
न कहीं खुला आसमान।
मुझे लगता है कोई राह तकता,
वो पानी का पनघट और झूले।
हरियाली तो अब टीवी मे दिखती,
जंगल पत्थर ओर कंक्रीटों मे बदले
विरह के दफ्तरो मे अब केवल,
कुछ दर्द की हैं फ़ाइलें
शायद मुझ बिन,
सूना है माँ का आँगन।
मरी ज़िंदगी को "जी" रहे हम,
इस आशा मे कभी तो गांव मे रहूगा।
दिल के कोने मे कही बेठा गाँव
रोज़ गांव लौटने को कहता है।